Kabirdas Biography, संत कबीरदास जी का सम्पूर्ण जीवन परिचय -

Kabirdas Biography, संत कबीरदास जी का सम्पूर्ण जीवन परिचय 


Kabiradas biography in hindi.


Hindisarijan में आप सभी का स्वागत है । आज की कड़ी में Kabiradas biography बताने जा रहे है । Kabirdas उस दौर में जाने माने संत, कवि के रूप में जाने जाते थे । उनके दोहे समाज मे जागृति लाने में कारगर साबित हुए । तो चलिए जानते है - Kabirdas Biography, संत कबीरदास जी का सम्पूर्ण जीवन परिचय -

संत कबीर ( Kabirdas ) का जन्म विक्रम संवत 1455 ईस्वी सन 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन काशी (वाराणसी) में एक दलित परिवार में हुआ था। इनके पिताजी का नाम नीरू तथा माताजी का नाम नीमा था। इनके एक पुत्री कमाली व एक पुत्र कमाल थे। बचपन में ही पिताजी की मृत्यु हो जाने पर उन्हें अनेक तकलीफों का सामना करना पड़ा। देश में सामाजिक ताना बाना विषमताओं से भरा हुआ था। जाति व वर्ण व्यवस्था के शीर्ष वर्ग द्वारा समाज के निचले तबके अर्थात शुद्र वर्ण को सामाजिक, मानसिक एवं धार्मिक रूप से प्रताड़ित किया जाने लगा। सामाजिक कुरीतियों, पाखण्डवाद, अंधविश्वास का चारों तरफ बोल बाला था। उस समय शूद्रों को शिक्षा ग्रहण करने, धन संग्रह करने नहीं दिया जाता था और उनके साथ छुआछूत व भेदभाव किया जाता था, मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। 

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 सन्त कबीर चाहते थे कि वे समाज में चेतना लाने का कार्य करें, लेकिन जन जागृति के लिए उनके पास कोई माध्यम नहीं था। उस समय आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के गुरु की शरण में जाना पड़ता था लेकिन शूद्रों को कोई भी सन्त या पंडित अपना शिष्य नहीं बनाते थे। दूसरी तरफ यह भी विडम्बना थी कि बिना गुरु दीक्षा लिये कोई भी व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को उपदेश नहीं दे सकता है और न ही शिष्य बना सकता है तथा न ही वह किसी को आध्यात्मिक या सांसारिक ज्ञान दे सकता है। 

इधर देश में हिन्दू समाज पर मुगलों का आतंक बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ शुद्र वर्ण (तथाकथित हिन्दू) सामाजिक विषमताओं से छुटकारा पाने के लिए मुस्लिम धर्म ग्रहण कर रहे थे। शूद्रों ( मूलनिवासी, बहुजन, SC, ST, OBC) को धर्मांतरण से रोकने के लिए वैष्णव संप्रदाय के सन्त रामानंद जी ने शूद्रों को अपना शिष्य बनाना शुरू किया। उनमें सन्त कबीर, सन्त शिरोमणि रैदास, सन्त नामदेव छिपा, सन्त पीपाजी दर्जी, सन्त धन्ना, सन्त मलूकदास, सन्त दादू दयाल, सन्त सुन्दरदास, सन्त गरीबदास, सन्त सेना नाई, गुरु नानक देव आदि प्रमुख हैं।

Kabiradas biography in hindi.


जीवन यापन - सन्त कबीर गृहस्थी थे तथा अपना पैतृक व्यवसाय बुनाई का कार्य करते थे। परिवार के सभी सदस्य भी  कपड़ा बुनने में सहयोग करते थे। प्राचीन समय से ही कपड़े बुनने का कार्य दलित (अनुसूचित जाति) वर्ग में मेघवाल/बुनकर/सूत्रकार ही करते आ रहे हैं। जिसके प्रमाण सन्त कबीर ने भी अपने दोहों में दिया है।लेकिन विडंबना यह रही कि उस समय के तथाकथित मनुवादियों ने सन्त कबीर को जाति, धर्म, सम्प्रदाय से अलग कर दिया ताकि उनकी पहचान किसी एक जाति या वर्ण विशेष से नहीं रहे।

 इन लोगों ने उनको विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया, किसी ने जुलहा मुसलमान बताया तो किसी ने लावारिश। लेकिन सत्य को कभी छिपाया नहीं जा सकता है। अगर कबीर विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे तो उन्होंने ब्राह्मणों का विरोध क्यों किया ? अगर वे जुलहा मुस्लिम थे तो उन्होंने मुसलमानों व मुल्लाओं का विरोध क्यों किया ? अगर वे हिन्दू थे तो उन्होंने हिन्दू धर्म का विरोध क्यों किया ? इससे यह जाहिर होता है कि सन्त कबीर शुद्र थे । वे बुनकर/ सूत्रकार/ मेघवाल थे । जो न तो हिन्दू थे और न ही मुस्लिम। जैसा कि उन्होंने एक दोहे में बताया-" 

हम घर सूत तनहि नित ताना, कण्ठ जनेऊ तुम्हारे।
तुम तो वेद पढहु गायत्री, गोविंद रिदै हमारे।।
जो तू ब्राह्मण ब्राह्मणी का जाया, आन बाट काहे नहीं आया।
लाडू लावन लापसी, पूजा चढ़े अपार, पूजा चढ़े अपार।
पूँजी पुजारी ले गया, मूरत के मुह छार।।
जो तू तुरक तुरकनी जाया, भीतर खतना क्यों नहीं कराया।
ना हम पूजे देवी - देवता, न हम फूल चढ़ाई।
ना हम मूरत धरे सिंहासन, ना हम घण्टा बजाई।।

भाषा शैली - 15 वीं शताब्दी में हिंदी साहित्य के रहस्यवादी कवि व सन्त के रूप में सन्त कबीर ने अपनी पहचान बनाई। सन्त कबीर की साखियों आदि का गुरु ग्रन्थ साहिब में भी बखान किया गया है। हालांकि कबीर को धर्म विरोधी मानते हैं लेकिन वे समतावादी विचारक, समालोचक थे। समाज में फैली सामाजिक कुप्रथाओं, कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास आदि की उन्होंने खुलकर निंदा की था सामाजिक बुराईयों जैसे छुआछूत, भेदभाव आदि का कड़ा विरोध किया। 
सन्त कबीर की साहित्यिक भाषा सधुक्कड़ी (खड़ी भाषा) थी, जिसमें राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधि, ब्रजभाषा आदि का मिश्रित समावेश है। उनकी काव्य रचनाओं, दोहों, वाणियों आदि में ईश्वर के ब्रह्म रूप का निरूपण है। जिसे निर्गुण रूप में पहचाना जाता है। ईश्वर को किसी नाम, रूप, गुण, काल आदि की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता है। उन्होंने आत्मा और परमात्मा के आत्मीय भाव को जाग्रत किया तथा लोगों को बताया कि मन ही मन्दिर है  और हमारे घट (शरीर) के भीतर ही सब कुछ है। 

आपको परमात्मा की खोज के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। कबीर के राम तो अगम हैं और वे संसार के कण कण में विद्यमान हैं। उन्होंने कहा भी है-"

निर्गुण राम जपु रे भाई।"
सूरज-चन्द्र का एक ही उजियारा, सब यहीं पसरा ब्रह्म पसारा।
जल में कुंभ कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जल ही समाना, यह तथ कथो गियानी।।
 मों को कहाँ ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ में ना में मूरत में, ना एकांत निवास में।
ना मन्दिर में ना मस्जिद में, ना काबा कैलाश में।
ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं बरत (व्रत) उपास में।
ना मैं क्रिया करम में रहता, नहिं जोग सन्यास में।
ना ब्रह्मांड आकाश में, ना मैं प्रकृति प्रवार गुफा में,
नहिं स्वांसों की स्वांस में।
खोजि होय तुरन्त मिल जाऊं, इक पल की तलाश में।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में।

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 सन्त कबीर के शिष्य धर्मदास ने उनकी वाणियों का संग्रह "बीजक" नामक ग्रन्थ में किया है, जिसके तीन मुख्य भाग है -

1. साखी - साखी शब्द संस्कृत के 'साक्षी' शब्द का विकृत रूप है। साखियों दोहों में लिखी गई है।
2.  सबद - यह गेय पद है, जिसमें पूरी तरह से संगीतात्मकता विद्यमान है। उपदेशात्मकता के स्थान पर भावावेश की प्रधानता है। इसमें कबीर के प्रेम व अंतरंग साधना की अभिव्यक्ति है।
3. रमैनी - यह चौपाई छंद में लिखी गई है। इनमें कबीर के रहस्यवादी व दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया है।

सन्त कबीर पढ़े - लिखे नहीं थे, परन्तु उनके पास तत्व ज्ञान था। जब वे सत्संग आदि में अपने शिष्यों व आम लोगों को जो ज्ञान देते थे। उन्हें वे लोग सुनते, गुनते व लिखते रहे। इसीलिए सन्त कबीर ने अपनी वाणियों में "कहत कबीर सुनो भाई साधो।" को दोहराया है। ताकि सज्जन पुरुष/स्त्री उनकी वाणी को गहनता के साथ सुने, मनन करें और उस पर अमल करें। वे कहते भी हैं -"मसि कागद छुयो नहीं,कलम गहि नहिं हाथ। अर्थात उन्होंने विद्या अर्जन नहीं की है।

सत्य शब्द/ सार शब्द - सन्त कबीर ने हमेशा सत्य व अहिंसा पर बल दिया है। उनके शब्दों या विचारों में तार्किकता है तथा उनका हर शब्द सत्य पर खरा उतरने वाला व वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है। उन्होंने कहा है-"साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जांके हिरदै साँच हैं, ताकें हिरदै आप।।


Kabir ke dohe in hindi
 उन्होंने सार शब्द पर विशेष जोर दिया है, उनका मत है कि अगर हमें परमात्मा को प्राप्त करना है तो बाह्य व आंतरिक ध्वनियों से अनजान होना पड़ेगा। ध्यान या साधना के दौरान हमें शून्य अर्थात गगन मंडल में अपना ध्यान केंद्रित करना होगा तथा 52 अक्षरों से निकलने वाली ध्वनि से दूर अंतःकरण में जाकर खोज करनी होगी, जहाँ किसी प्रकार की शब्द ध्वनि नहीं हो। लेकिन ध्यान व साधना के लिए सुज्ञानी सद्गुरु का सानिध्य जरूरी है। बिना सद्गुरु के हमें कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है। अतः सन्त कबीर ने गुरु की महिमा बताई है। उन्होंने कहा है-"

 गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपकी, मुझे गोविंद दियो बताय।।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गहि गहि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।।

कबीर का मानवीय दृष्टिकोण - सन्त कबीर संयम व सादगी के प्रतीक हैं। उन्होंने हमेशा सत्य को ही स्वीकार किया है तथा झूठ या काल्पनिकता को नकारा है। उनमें मानवीय मूल्यों को सहज भाव से ग्रहण करने की अपार क्षमता थी। झूठ, चल, कपट के वे घुर विरोधी रहे हैं। वे प्रकृति पूजक व पर्यावरण विद भी थे। उनके कुछ दोहे जो समता मूलक समाज के निर्माण में सहयोगी हैं-

सबसे लघुताई भली, लघुता ते सब होय।
जैसे दूज का चंद्रमा, शीश नवें सब कोय।।
कबीरा कुंआ एक है, पानी भरे अनेक।
बर्तन में ही भेद है, पानी सबमें एक।।
एक बूंद एकै मल - मुतर, एक चाम एक गुदा।
एक जोती से सब उतपना, कौन बामन कौन शूद।।
काहे को कीजे पांडे छूत विचार, छूत ही ते उपजा सब संसार।
हमारे कैसे लहु तुम्हारे कैसे दूध, तुम कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद।।
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लगे अति दूर।।

विचारधारा - सन्त शिरोमणि कबीर की विचारधारा वैज्ञानिकवादी व मानवतावादी थी। उन्होंने हिन्दू - मुस्लिम दोनों सम्प्रदाय का विरोध किया। क्योंकि मध्यकाल में इन दोनों धर्मों में धार्मिक अंधता चरम सीमा पर थी। समाज का बहुत बड़ा वर्ग (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिला) सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास, पाखण्डवाद, कर्मकांड, ब्राह्मण श्रेष्ठता की विसंगतियों से ग्रस्त था। निम्न वर्ग जिसे अति शुद्र वर्ण की संज्ञा दी गई है, वह जातीय भेदभाव, अस्पृश्यता का शिकार हो रहा था। ऐसे में कबीर ने निर्बल को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए संघर्ष किया। उन्होंने कहा है-

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का भेद।
कर का मनका डार के, मन का मनका फेर।।
माटी का एक नाग बनावे, पुजे लोग लुगाया।
जिंदा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया।।
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़।
घर की चक्की कोई नहीं पूजे, जाको पीस खाय संसार।।
कांकर पत्थर जोरि के, मस्जिद भई चुनाय।
ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।
जिंदा बाप कोई नहीं पूजे, मरे बाद पुजवाय।
मुट्ठी भर चावल लेकै, कौवे को बाप बनाय।।

मानवीय दृष्टिकोण- सन्त कबीर ने मानवीय मूल्यों पर बहुत ही गहनता से प्रकाश डाला है। उन्होंने हमारे शरीर के भीतर विद्यमान विषय वासनाओं - काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार को त्यागने की बात कही है तथा श्रम के महत्व को बल दिया है। सभी को आपसी प्रेम व भाईचारे के साथ अपना जीवन यापन करने की सलाह दी है।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होई।।
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे तो, दुख काहे को होय।।

कर्म की प्रधानता - कबीर के अनुसार मनुष्य को परिश्रम करते रहना चाहिए क्योंकि कर्म ही प्रधान हैं। उनके अनुसार -
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करोगे कब।।
श्रम ही ते होते हैं जो मन सखी धीर।
श्रम से खोदत कूप ज्यों, थल में प्रागटै नीर।।
करत करत अभ्यास ते, जनमत  होत सूजान।
रसरी आवत जात है, सिल पर परत निसान।।

Kabir darshan in hindi.

Kabira Darshan in hindi.

कबीर का दर्शन - सन्त कबीर का दर्शन ज्ञानमार्गी है। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म को अपनाया और संसार में भ्रामक प्रचार प्रसार करने वाले पाखंडियों का पर्दाफाश किया। उन्होंने ईश्वर के किसी भी स्वरूप को स्वीकार करने से इनकार कर दिया तथा अपने सत्य कर्म पर चलने की राह दिखाई। उन्होंने वेद, उपनिषद, शास्त्र,ब्राह्मण गर्न्थो को हिन्दू धर्म की कर्मकांडता, जातिवाद, छुआछूत, पाखंड, ब्राह्मण श्रेष्ठता की विसंगतियों से ग्रसित बताया। उन्होंने यह बताने का प्रयास किया कि सब कुछ हमारे भीतर ही विद्यमान हैं, हमें बाहर कहीं खोजने की जरूरत नहीं है।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिल्या कोय।
जो मन खोजा आपना, तो मुझसे बुरा न कोय।।
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
अपना तन शीतल करें, औरन को सुख होय।।
कबीर के राम निर्गुण निराकार ब्रह्म थे। कबीर की भक्ति सहज है। उनमें एकाग्रता, सतत साधना, मानसिक पूजा अर्चना, मानसिक जाप, सत्संगति का महत्व है। कबीर नाम में विश्वास करते थे, रूप में नहीं। उन्होंने अपने राम को शास्त्र प्रतिपादित, अवतारी, सगुण, वर्चस्वशील, वर्णाश्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के लिए "निर्गुण राम" शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने कहा है -

एक राम दसरथ घर डोले, एक राम घट घट में बोले।
एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा ।।
निर्गुण राम निरंजन राया, जिन पर सकल सृष्टि उपजाया, निगुण सगुण दोउ से न्यारा, कहे कबीर सो राम हमारा ।।

Kabir vichar in hindi.


कबीर मानवतावादी विचारधारा के महान सन्त, समाज सुधारक, समालोचक रहे हैं। जिनका प्रत्येक शब्द सारमय हैं। कबीर साहेब ने किसी शास्त्र का अनुवाद नहीं किया अपितु उन्होंने अपने आस पास जो देखा, सहा उसे सरल व सहज शब्दों में लोगों तक प्रसारित किया। जहाँ भी उन्हें आडम्बर, दिखावा, मिथ्यासर, दिखाई दिया उसे तार्किक विचारों के माध्यम से समाज उत्थान के लिए उनका खंडन किया। वे 15 वीं सदी के मध्यकाल में लिखते हैं कि सभी जन समान हो,जातीय भेदभाव न हो, प्राणी हिंसा न हो तथा कर्मकांड, पाखंड मुक्त  समाज का निर्माण हो जो सरल व सहज हो।

साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहिं।।

कबीर की उलटबांसियों - सन्त कबीर का लक्ष्य पोथी ज्ञान से दबे पंडित थे, जिनके बीच ही कबीर को रहना व अपना जीवन यापन करना था। जाहिर है कि उनकी उलटबांसियों के अर्थ पोथियों में नहीं थे और पंडितों की नगरी काशी का कोई भी पंडित उनका अर्थ करने में समर्थ नहीं था। पंडितों के अहंकार को कबीर की यह उलटबांसियों तोड़ती है तथा उनके सारे ज्ञान की पोल खोल देती है। 

इनके शब्दार्थ बहुत व्यंग्य भरे हैं, परन्तु तत्वार्थ सारगर्भित हैं। ऐसी ही एक उलटबांसी-- 1. एकै कुँवा पंच पनिहारी/एकै लेजु भरे नौ नारी/फटी गया कुंआ विनसि गई बारी/विलग गई पांचों पनिहारी।।
इस उलटबांसी में योगी की अंतरंग व बहिरंग स्थिति का वर्णन है।
तात्पर्य - अंतःकरण रूपी कुंआ एक है। इसमें नौ पनिहारी (नौ इंद्रियों) कषाय-कल्मष की तरह पानी भरती है। आत्मा का परमात्मा से सम्पर्क/समर्पण होने पर वह मोह ग्रस्त अंतःकरण फट जाता है। इस कुएं में से पानी खींचकर पनिहारियों ने जो शाक-भाजी की क्यारी उगाई थी सो नष्ट हो जाती है। खेल बिगड़ जाने पर पांच पनिहारी अर्थात पाँच तत्व यथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश अलग अलग चले जाते हैं।  

2. देखि देखि जिय अचरज होई/यह पद बुझे बिरला होई/धरती उलटि अकासै जाय/चिउंटी के मुख हस्ती समाय।
बिना पवन सो पर्वत उड़े, जीव जंतु सब वृक्ष चढ़े। सूखे सरवर उठे हिलोरा, बिनु जल चकवा करत किलोला।

3. बरसे कम्बल भीगे पानी। 
कबीर के अनुसार जो तत्व और ज्ञान से अवगत हैं। जो प्रमाणिकता को अपनाते हैं, ऐसे ही सन्त माने जाते हैं। यह आध्यत्मिक ज्ञान पर आधारित है, उनके लिए इंद्रियों को वश में करना जरूरी है। उनकी विशिष्टता व दार्शनिक ज्ञान की परिचायक है। इनमें रहस्यवाद की प्रधानता होती है।

परिनिर्वाण - ऐसे महान समाज सुधारक,तत्व ज्ञानी सन्त का विक्रम संवत 1551 सन 1494 में मगहर में महा परिनिर्वाण हो गया। उनके जन्म व परिनिर्वाण तिथियों में अलग अलग धारणा है।

उपसंहार - कबीर साहेब ( Kabiradas ) ने मध्यकालीन युग में सामाजिक विषमताओं, कुरीतियों, धार्मिक अन्धता, ब्राह्मणवाद आदि का प्रबल  विरोध किया तथा समता मूलक समाज का निर्माण करने में जीवन पर्यंत संघर्ष किया। अतः हम कह सकते हैं कि हमारे बहुजन सन्तों का आंदोलन भक्ति का आंदोलन नहीं था बल्कि वह हमारी मुक्ति का आंदोलन था। लेकिन यह उनकी पहचान नहीं कर पाए।

मास्टर भोमाराम बोस
जिलाध्यक्ष भारतीय दलित साहित्य अकादमी, बाड़मेर (राज.)

3 टिप्पणियाँ

  1. बहुत शानदार जानकारी मान्यवर जी। आजकल के बच्चे कहा इस जानकारी को प्राप्त कर पायेगा।

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  2. जी आभार घेवर चंद जी।
    ( *मास्टर भोमाराम बोस*)

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