चंद्रावल बीज ( दूज ) का धार्मिक महत्व एवं पाट स्थापना विधि

चंद्रावल बीज ( दूज ) का धार्मिक महत्व एवं पाट स्थापना विधि


chandravali Beez ka dharmik mahatwa.


भारत में धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से तिथियों का विशेष महत्व है । खासकर शुक्ल पक्ष की तिथियों जैसे एकादशी, पूर्णिमा, अष्टमी व छठ इत्यादि । इन तिथियों के दिन व्रत रखा जाता है। दान-पुण्य, पूजन, भजन - कीर्तन भी  किया जाता है। इसी प्रकार शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि का भी अपना विशेष महत्व है। इस दिन सभी लोग चन्द्र दर्शन को बहुत ही उत्सुक रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि पुराने समय में दूज के चन्द्रमा को देखकर व उनके दर्शन कर लोग मौसम,महामारी,सुख-शांति इत्यादि का अनुमान लगाते थे। इसकी महत्ता तब और भी अधिक बढ़ जाती है, जब शनिवार का  दिन हो तथा शुक्लपक्ष मास चैत्र, वैशाख, भाद्रपद, माघ हो। शनिवार का दिन होने के कारण इसे चन्द्रावल बीज (दूज) के नाम से जाना जाता है। यह तिथि पुरुषों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है । इस दिन व्रत रखकर उजवना भी किया जाता है, तो चलिए जानते हैं chandravali Beez ka dharmik mahatwa - चन्द्रावल बीज एवं उनका महत्व -


वैसे तो दूज के चंद्रमा के हर कोई दर्शन करता है लेकिन अन्य धर्मावलंबियों के साथ साथ मेघवंशी समाज के लोगों में इसका विशेष महत्व है।

मेघवाल समाज में शुक्लपक्ष के दूज के चाँद का विशेष महत्व है। उनमें भी चैत्र, वैशाख, भाद्रपद व माघ महीने की दूज के चन्द्रमा को सदियों से वन्दन किया जाता रहा है,उस दिन लोग व्रत/उपवास भी रखते हैं तथा  खीर, चावल, चूरमा आदि का भोजन बनाया जाता है । चन्द्र दर्शन कर आराध्य लोक देवता बाबा रामदेव जी की जोत कर उस पर भोग लगाकर अपना व्रत / उपवास छोड़ते हैं।

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चन्द्रावल बीज का अर्थ -

अगर वार शनिवार व शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि हो तो बहुत ही उत्सुकता रहती है। इसे आम बोलचाल में चंद्रावल बीज ( दूज ) कहते हैं। बशर्त बीज ( दूज) शुक्ल पक्ष की होनी चाहिए । वैसे भी शुक्ल पक्ष की बीज ( दूज ) को आम बोलचाल की भाषा मे बड़ी दूज भी कहा जाता है। यदि शुक्ल पक्ष की दूज के दिन शनिवार हो तो इनका महत्व धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोपरी हो जाता है। ये परम्परा सदियों पुरानी है। इस शनिवारी दूज के साथ कई ऐतिहासिक तथ्य जुड़े हैं जो इस प्रकार है -


1. लोक देवता बाबा रामदेव जी से जोड़कर देखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चन्द्रावली दूज को बाबा रामदेव जी का जन्म हुआ था।

2. एक कड़वा सच यह भी  है कि बाबा रामदेव जी के जन्म से पूर्व भी मेघवंश दूज (बीज) को मानते आ रहे हैं।

3. सन्त शिरोमणि रिख धारू मेघ के घर ( झोंपड़ी ) मेवानगर ( बालोतरा ) में जब उनके गुरु महाराज उगमसी जी भाटी आये थे तो उस दिन चंद्रावल बीज (दूज ) थी और उनके घर पर सत्संग का आयोजन किया गया था। इस सत्संग में मेवानगर के रावळ मालदेव की जोड़ायत (पत्नी) रानी रूपादे भी उपस्थित हुई थी। दन्त कथाओं व वाणियों में यह उल्लेख भी मिलता है कि इस सत्संग में मेघवाल समाज के आराध्य लोक देवता बाबा रामदेव जी व बाल तपस्विनी भक्त शिरोमणि डालीबाई व आस-पास के कई सन्त भी हाजिर थे।

4. एक आम धारणा यह भी है कि सतयुग में पांडु (पांडव) भी चन्द्रावली दूज को बहुत महत्व देते थे । उन्होंने 12 वर्ष तक प्रतीक्षा की मगर शनिवारी दूज का संयोग नहीं बैठ पाया । 


इससे यह प्रमाणित होता है कि मेघवाल समाज का अपना एक पंथ था। जो सदियों से चला आ रहा है। हो सकता है कि गुरु उगमसी जी भाटी भी उसी पंथ के थे। यह पंथ राजस्थान में सम्सपीर, मेघ खिमण रिख से चला आ रहा है । या यह भी कारण हो सकता है कि मेघवंश चन्द्रवँशी हो। 

सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि द्वितीय तिथि को "बीज" क्यों कहते हैं ? क्या मेघवंश में बीज का कोई आध्यात्मिक कारण है ? सीधा सा कारण है कि पृथ्वी पर बीज की उत्पत्ति मेघवंश (रिख) द्वारा की गई थी। ताकि वह उस बीज से अन्न का उत्पादन कर सके। 

हड़प्पा, मोहनजोदड़ो व सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई से यह प्रमाणित होता है कि आदी पुरुष "मेघऋषि" के वंशज इसके आस-पास बसे हुए थे। जिनका प्रमुख व्यवसाय कृषि व पशुपालन रहा है। यह लोग प्रकृति पूजक थे तथा मूर्ति पूजा आदि में विश्वास नहीं करते थे। इन्होंने ही पौधों के रेशे से धागा तैयार कर मानव के नग्न शरीर को ढकने के लिए कपड़ा बुना। तभी से मेघवाल समाज के लोगों ने बुनाई का कार्य प्रारंभ किया और लोगों को तन ढकने के लिए कपड़ा दिया । बुनाई का कार्य करने के कारण कहीं कहीं इन्हें बुनकर, वणकर, सूत्रकार आदि नामों से भी जाना जाता है। इनका धर्म "मेघ महाधर्म" है। 

Rikh Puran Bhajan एक भजन में कहा गया है- (1) 

सतलोक से मेघ रिख आया, अमी कटोरा साथे लाया ।

देवी देवता समुख आया, प्रेम प्रसाद ले रिख ने जीमाया। 

रिख ने सवा बैंत का नख बढाया, अंग चीर ने चीरा दिराया

लिंग भंग दो अंग बनाया, नर नारी इऊ नाम धराया । 

अंग भंग से गेरू उपाया, गेरू पानी से भगवा रंगिया। 

रिख भगवा की कीनी सार, जिणसे उपजा जुग संसार। 


(2) आद - जुगाद सदा ही रिख सीधा, जुगो - जुग आगलवाण हुआ।

अमर जोत रिखों घर सोवै, सत है पर नासत नाय।।

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चंद्रावल बीज का मेघ महाधर्म ( Megh Mahadharm ) में आध्यात्मिक महत्व - 

यह सही है कि बीज की उत्पत्ति रिख ने ही की है। बीज महिमा एवं रचना प्रमाण में सारी व्याख्या की हुई है। बीज महिमा की मात्र टैर में ही सारी बात समाहित है। "राखो बीज़ भजो भगवन्त ने, सकल कला में मोटो किरतार। 

दसवें निकलंक देह अवतरे, बीज स्नेह दिन रूङो वार।।"

अर्थ- बीज़ को संभाल कर रखों वैसे ही बेकार में नष्ट मत करो। अलख की आराधना करों, क्योंकि सकल कला में मोटो किरतार (ब्रह्म) है। बीज अपना विस्तार कर दसवें मास में बाहर आता है। बीज बोते समय स्नेह यानि प्यार की जरूरत होती है। बिना स्नेह बीज़ प्रलय हो जाता है। इसलिए वो दिन लेखे है जिस समय बीज़ बोया। रूङो वार यानि कि अच्छा अवसर। 

रानी रूपादे जी ने भी अपने पति रावळ मालदेव को बीज को सही स्थान पर उपयोग करने को कहा है-"उजड़ खेत में बीज मत बोओ, हासल हाथ नहीं आवे ओ रावळ माल। हो जाओ सन्त सुधारो थोरी काया।"

अतः हम यह कह सकते हैं कि रिख धर्म या मेघ महा धर्म में बीज का आध्यात्मिक महत्व बहुत ही गहन है। सन्त परम्परा अनुसार यह भी कहा जाता है कि बीज एक पंथ है। जो सत पंथ, निजार पंथ, मार्गी पंथ आदि के समान है। यह भी हो सकता है कि गुरु उगमसी जी भाटी ने इस पंथ की स्थापना की हो। जो सन्त कबीर की निर्गुण विचारधारा पर आधारित है तथा छुआछूत व भेदभाव रहित है।


chandravali beez ka paat sthapana vidhi.


चन्द्रावली बीज के दिन पाट स्थापना विधि- chandravali beez ka paat sthapana vidhi -

Dooj puja सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस दिन बीज या दूज तिथि होती है उस संध्या को सत्संग या जम्मा का आयोजन उत्साह से किया जाता है तथा उसमें प्रकृति को साक्षी मानकर एक निश्चित स्थान पर जल का छिड़काव कर पाट स्थापना की जाती है। चार लोगों को साखिया (साक्षी)  बनाया जाता है तथा लकड़ी के बाजोट पर लाल व सफेद रंग के दो कपड़े बिछाए जाते हैं। जिसके चारों कोनों पर घी के चार दीपक जलाए जाते हैं जो चहुँ दिशाओं में रोशनी का प्रतीक है। 

बीच में अनाज या धान (चावल) से दो चरणों की आकृतियों उकेरी जाती है जो महात्मा बुद्ध/ अलख के प्रतीक हैं। इसके अलावा सूर्य, चन्द्रमा व स्वस्तिक की आकृतियों उकेरी जाती हैं जो शीलवान व ज्ञान का प्रतीक हैं। पाट पर कुंभ कलश स्थापित किया जाता जो सुख - समृद्धि तथा रिख/मेघ महाधर्म का प्रतीक है। फिर ज्योति ( जोत) जलाई जाती है जो अलख, निरंजन, निराकार, ब्रह्म, परमात्मा का प्रतीक है। सभी लोग उस जोत का दर्शन करते हैं। 

यह विधि प्राचीन समय में पर्दे में होती थी। क्योंकि इस सत्संग में समान विचारधारा के सन्त या लोग ही भाग ले सकते थे। फिर गुरु महाराज के आदेशानुसार कार्य होता था, इसमें सद्गुरु की प्रधानता होती थी। जप, तप, ध्यान, साधना, समाधि पर गहनता से अध्ययन किया जाता था। सत्य, अहिंसा व मानवतावादी दृष्टिकोण का पाठ पढ़ाया जाता था। 

लोक कथाओं, किवदन्तियों, भजनों में कहा गया है कि जिस दिन गुरु महाराज उगमसी जी भाटी मेवानगर में सन्त शिरोमणि मेघ रिख धारू जी महाराज की झोंपड़ी में पधारे थे उस दिन शनिवार विक्रम संवत 1439 था। मेवानगर के रावळ मालदेवजी इस पंथ के अनुयायी नहीँ थे, परन्तु उनकी पत्नी रानी रूपादे जी इस पंथ की अनुयायी थी। वह तथा मेघ धारू रिख दोनों गुरु भाई-बहन थे। इनके गुरु उगमसी जी भाटी थे। जो मूलतः जैसलमेर के निवासी थे। इस दिन रावल मालदेव के अंहकार के कारण एक ऐसी घटना का प्रादुर्भाव हुआ जिसे आज भी याद करते है । 

अंत में गुरु महाराज की आज्ञा से रावळ मालदेव जी को सन्त शिरोमणि मेघ धारू जी महाराज की पत्नी रत्ना दे जी ने उनके सिर पर हाथ रखा और उन्हें गुरु दीक्षा दी। कानों को फाड़कर कुंडल डाले गए तथा उन्हें रावळ मालदेव से मल्लीनाथ बनाया गया। गुरु उपदेश लेने के बाद रावळ मालदेव जी ने राज-पाट, सिंहासन आदि छोड़ एक निर्मल साधू का भेष धारण कर दिया था।

मेघवाल समाज के आराध्य लोक देवता बाबा रामदेव जी को भी इसी पंथ का अनुयायी मानते हैं, उन्होंने भी परम ब्रह्म निराकार पर बल दिया तथा महात्मा बुद्ध के पंचशील को धारण किया। समता मूलक समाज का निर्माण करने में उस समय उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है । 

इन्हें हिन्दू - मुस्लिम साम्प्रदायिक सद्भाव के रूप में भी मानते हैं । जो शांति, एकता, सद्भावना की मिसाल है । लेकिन विडंबना है कि बाबा रामदेव जी को अवतारवाद का शिकार कब बनाया गया ? या उन पर अवतारवाद का पर्दा क्यों व किसने डाला ? इस पर अभी तक इतिहासकार मौन हैं, हालांकि स्वतंत्र पत्रकार व दलित साहित्यकार भँवर मेघवंशी ने अपनी पुस्तक में इस पर  काफी हद तक लिखा भी है।

बाबा रामदेव जी की एक वाणी में परमार्थी कार्यो एवं निस्वार्थ सेवा का अच्छे से वर्णन किया गया है ।

लेकिन हम लोग उनके इन शब्दों को पहचान नहीं पाए। जिस समय दलित वर्ग पर अत्याचार, छुआछूत, भेदभाव चरम सीमा पर था उस समय उन्होंने अंधे अर्थात आँखे होते हुए तथा देखते हुए भी अन्याय व अत्याचार को चुपचाप सहन कर रहे  थे, अशिक्षा मूल कारण था। पांगलियों ने पाँव दिए मतलब कि वह समाज जो सदियों से सामाजिक विषमताओं के कारण पैर होते हुए भी कुछ कर नहीं पाता था, उन्हें समाज की दिशा निर्धारण करने, जाग्रति फैलाने के लिए प्रेरित किया । निसंतान को पुत्र दिए अर्थात उनके पुत्र होते हुए भी बेगार प्रथा के कारण असहाय महसूस करते थे, उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरित किया।


शनिवारी दूज का धार्मिक महत्व - Dooj ka dharmik mahatwa -

उस समय सत्संग में किसी भी प्रकार के नशे पर पूर्णतः पाबंदी होती थी। इसमें स्त्री-पुरुष सम भाव से शरीक होते थे। अगर हम इसे सिद्ध सम्प्रदाय या नाथ सम्प्रदाय से मिलाजुला कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। बीज प्रमाण में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। बाबा रामदेव जी की समाधि रूणिचा (जैसलमेर) में है, जहाँ पंचशील के प्रतीक के रूप में पचरंग नेजा (ध्वज) लहरा रहा है। उनके समाघि स्थल को देवरा कहते हैं, जहाँ दो पगलियों (चरणों) की पूजा होती है।

उपसंहार - मेघरिख / मेघवंश / मेघवाल समाज की सदियों से अपनी अलग पहचान रही है। उनकी कला, संस्कृति, प्रकृति प्रेम, पर्यावरण संरक्षण, ध्यान, साधना, जप, तप आदि सरल, सहज व मानवतावादी हैं। ये ज्ञानमार्गी व निर्गुण पंथ के वाहक रहे हैं। मेघ महाधर्म में मूल सिद्धांत महात्मा बुद्ध पर आधारित है। 

जो कालांतर में सन्त कबीर, सन्त शिरोमणि रैदास, सम्सपीर, मेघ खिमण रिख, सन्त शिरोमणि मेघरिख धारू जी महाराज, बाबा रामदेव जी, बाल तपस्विनी भक्त शिरोमणि डालीबाई आदि महान सन्तों व समाज सुधारकों द्वारा पोषित है। जो सत्य, अहिंसा पर आधारित है तथा कर्म की प्रधानता है। अधिकतर सन्तों ने ग्रहस्थ जीवन का पालन करते हुए आमजन को ज्ञान व भक्ति का मार्ग बताया। सच में इन सन्त महात्माओं ने भक्ति के साथ साथ हमारी मुक्ति का आंदोलन चलाया था।

(मास्टर भोमाराम बोस, अराबा (बाड़मेर)

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